ड्राइविंग का पहला सबक शायद साइकिल से ही शुरू होता है .........तीन पहिये से शुरू होकर दो पहिये से होते हुए चार पहिये ( सभी पे लागू नहीं ) तक के सफर में सबसे बड़ा योगदान बचपन के उन्हीं साइकिलों का है .......
पहली साइकिल का मनोवैज्ञानिक असर बचपन के प्रत्येक वर्ग पर सम्भवतः एक ही होता होगा, फिर चाहे वो अम्बानियों का बचपन हो या झुग्गीवालों का। साइकिल के पैडल पर जब पैर अपना हक़ जताते हैं तो ऐसा लगता है मानों हवा गालों पर होली का अबीर लगा रही हो और तब शायद आज़ाद होने की वही फीलिंग आती है जो भारत को १९४७ में आई होगी।
कुछ इन साइकिलों को चला कर बड़े हो गए होंगे और ये साइकिलें छोटी ही रह गईं।
जब नई साइकिल आती है तो पुरानी वाली किसी कोने में ठेल दी जाती है मानों घर का कोई बुजुर्ग हो जो बहुत बीमार है और जिसका कमरा अलग कर दिया गया हो, कोई उनके पास नहीं जाना चाहता, उन्हें छूना नहीं चाहता, उनसे बात नहीं करना चाहता। कुछ छत के किसी कोने में फेंक दी जाती हैं , कुछ बरामदे के पास लगते छोटे स्टोर रूम में, कुछ बगीचे में लगे पुराने पीपल के पास , कुछ आँगन से सटे उस दीवार के पास जिसका प्लास्टर उतर चुका है। इन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों कुछ कहना चाह रही हों कि "मैं अब भी ठीक हो सकती हूँ" , "तुम्हें घुमा सकती हूँ" , "मेरा भी दम घुटता है" ,
"खुली हवा में सांस लेना चाहती हूँ"
, जब मैं आई थी तो तुम्हारे रातों कि नींद भी गायब थी। कब सुबह होगी और मेरे पहिये इठलाएँगे। कभी हल्की सी गर्द भी पड़ जाए तो तुम रेशम के कपड़ों से मुझे साफ़ करते थे। मगर अब पेंट जगह-जगह से उतर चुका है। जंग भी तो लगा है। गद्दी भी फट गई है। चेन बार-बार उतरने लगी है। तुमने ठीक ही किया जो नई ले आए।
शायद मैं भावुकता में अतिवादी हो रहा हूँ क्यूंकि विज्ञान में निर्जीव के लिए भावना की कोई जगह नहीं है।
बेजान वस्तुएं मूक होती हैं। वो कुछ कह नहीं सकतीं। उनकी अपनी कोई फीलिंग नहीं होती , ये हम (मनुष्य ) ही हैं जिन्हे ऐसी कलाएं प्राप्त हैं।
हम प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ धरोहर हैं। हम सबसे अलग हैं क्यूंकि हमारे पास दिमाग है।
और दिमाग ये नहीं कहता कि हम साइकिल से नॉस्टैल्जिक हो जाएं।
हमें आगे बढ़ना है।
तर्रक्की करनी है।
बी. एम्. डब्ल्यू. चलानी है।
क्यूंकि ज़िन्दगी चलती जाती है और साइकिल रुकी रह जाती है।
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