लिखना क्या है ?,,,, एक शौक ! ,,,,,एक बीमारी ! ,,,,,,या फिर एक फालतू काम !,,,,,,इनमें से कुछ भी हो मगर जब कुछ संजीदगी से लिखा जाता है तो इन सभी विकल्पों से ऊपर उठकर एक एहसास बन जाता है ,,,, अब सवाल यह है कि संजीदगी से कैसे लिखा जाता है और कैसे कोई लेख एक एहसास बन जाता है ? अमूमन किसी विषय पर लिखने के दौरान लेखक उसमें सामाजिक संसोधन करता हुआ चलता है और अंततः उसकी मूल भावना से दूर हो जाता है। ऐसे लेख प्रायः किसी कॉन्फ्रेन्स या किसी निबंध प्रतियोगिता का हिस्सा बनते हैं।
आज जो लिख रहा हूँ वो किसी कॉन्फ्रेन्स या निबंध प्रतियोगिता का हिस्सा बनने की क़ाबलियत नहीं रखता --
सच कहूं तो अब इस शहर से मन उचट सा गया है ,,,,,,,,जितना कहना चाहता हूँ उतना ही अधूरा रह जाता है। जितना मिलता हूँ उतना ही अकेला हो जाता हूँ। ऐसा क्यों हो रहा है कि इस शहर में रहना अक्सर याद दिलाता है कि अब चलना है वापस। जहाँ से आया था। उसी एक्सप्रेस से। पर वो ट्रेन तो अब बंद हो चुकी होगी। क्या मेरी वापसी के लिए वो पुराने रास्ते इंतज़ार कर रहे होंगे ? क्या जो छोड़कर आया था वो अब भी वैसा ही होगा ? जिनके लिए लौटने का मन करता है क्या वो उसी संजीदगी से मिलेंगे ? जिनके साथ खेला, वो अब न जाने कहाँ होंगे। सब के सब भटक गए होंगे। क्या यह उन सब से मिलने की बेकरारी है या फिर इस शहर में मन के उजड़ जाने के बाद अपना ही मकान किराए का लगने लगा है ? घर वालों के ऑफिस जाने के बाद लगता है कि किसी वीराने में घिर गया हूँ। क्या कोई लौट सकेगा कभी अपनी मां के गर्भ में और वहां से शून्य आकाश में ? जो मिला वही छूटता चला गया।
दरअसल सहेजने आया ही नहीं था,जो सहेज सकूं। हर दिन गंवाने का अहसास गहराता है। लौट कर आता हूं तो ख्याल आता है। क्यों और कब तक इस शहर में बेदिल हो घूमता रहूंगा। इस शहर में जबड़ों को मुसकुराने की कसरत क्यों करनी पड़ती है? सारी बातें पीठ के पीछे ही क्यों होती है? सोचता हूँ किसके लिए मेरे पिताजी गांव में घर की चारदीवारी बना रहे हैं ।अपने बेटों के लिए घर को महफूज़ कर रहे हैं। मैं कल की शाम एक फाइव स्टार होटल में था। बस फिर से दिल टूट गया। इतनी चमकदार रौशनी,महफिल और मेरे पिताजी अकेले। वो कहते हैं कि गांव से अच्छा कुछ नहीं। तुम्हारे शहर में दिल नहीं लगता। कामयाब होने का चक्र ऐसा क्यों हैं कि सारे रिश्ते उसमें फंस कर टूटते ही जाते हैं। पेशेवर होना अब एक अपराधी होना लगता है।
ऐसा क्यों हो रहा है कि मन कुछ खराब सा हो रहा है ? सामान बांधने का दिल करता है।
wonderful article sir ! Simply loved it
ReplyDeleteThanks Sudarshan Mishra ji
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