Wednesday, March 12, 2014

रुकी हुई साइकिल ....



ड्राइविंग का पहला सबक शायद साइकिल से ही शुरू होता है .........तीन पहिये से शुरू होकर दो पहिये से होते हुए चार पहिये ( सभी पे लागू नहीं ) तक के सफर में सबसे बड़ा योगदान बचपन के उन्हीं साइकिलों का है ....... 

पहली साइकिल का मनोवैज्ञानिक असर बचपन के प्रत्येक वर्ग पर सम्भवतः एक ही होता होगा,  फिर चाहे वो अम्बानियों का बचपन हो या झुग्गीवालों का।  साइकिल के पैडल पर जब पैर अपना हक़ जताते हैं तो ऐसा लगता है मानों हवा गालों पर होली का अबीर लगा रही हो और तब शायद आज़ाद होने की वही फीलिंग आती है जो भारत को १९४७ में आई होगी। 

 कुछ इन साइकिलों को चला कर बड़े हो गए होंगे और ये साइकिलें छोटी ही रह गईं।  


जब नई साइकिल आती है तो पुरानी वाली किसी कोने में ठेल दी जाती है मानों घर का कोई बुजुर्ग हो जो बहुत बीमार है और जिसका कमरा अलग कर दिया गया हो, कोई उनके पास नहीं जाना चाहता, उन्हें छूना नहीं चाहता, उनसे बात नहीं करना चाहता। कुछ  छत के किसी कोने में फेंक दी जाती हैं , कुछ बरामदे के पास लगते छोटे स्टोर रूम में, कुछ बगीचे में लगे पुराने पीपल के पास , कुछ आँगन से सटे उस दीवार के पास जिसका प्लास्टर उतर चुका है। इन्हें देखकर ऐसा लगता है मानों कुछ कहना चाह रही हों कि "मैं अब भी ठीक हो सकती हूँ" , "तुम्हें घुमा सकती हूँ" , "मेरा भी दम घुटता है" , "खुली हवा में सांस लेना चाहती हूँ" , जब मैं आई थी तो तुम्हारे रातों कि नींद भी गायब थी।  कब सुबह होगी और मेरे पहिये इठलाएँगे। कभी हल्की सी गर्द भी पड़ जाए तो तुम रेशम के कपड़ों से मुझे साफ़ करते थे।  मगर अब पेंट जगह-जगह से उतर चुका है।  जंग भी तो लगा है।  गद्दी भी फट गई है।  चेन बार-बार उतरने लगी है। तुमने ठीक ही किया जो नई ले आए।  


शायद मैं भावुकता में अतिवादी हो रहा हूँ क्यूंकि विज्ञान में निर्जीव के लिए भावना की कोई जगह नहीं है।  बेजान वस्तुएं मूक होती हैं। वो कुछ कह नहीं सकतीं। उनकी अपनी कोई फीलिंग नहीं होती , ये हम (मनुष्य ) ही हैं जिन्हे ऐसी कलाएं प्राप्त हैं।  हम प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ धरोहर हैं। हम सबसे अलग हैं क्यूंकि हमारे पास दिमाग है।  और दिमाग ये नहीं कहता कि हम साइकिल से नॉस्टैल्जिक हो जाएं।  हमें आगे बढ़ना है।  तर्रक्की करनी है।  बी. एम्. डब्ल्यू. चलानी है।



क्यूंकि ज़िन्दगी चलती जाती है और साइकिल रुकी रह जाती है। 

Thursday, February 6, 2014

एक छूटता हुआ शहर ......

लिखना क्या है ?,,,, एक शौक ! ,,,,,एक बीमारी ! ,,,,,,या फिर एक फालतू काम !,,,,,,इनमें से कुछ भी हो मगर जब कुछ संजीदगी से लिखा जाता है तो इन सभी विकल्पों से ऊपर उठकर एक एहसास बन जाता है ,,,, अब सवाल यह है कि संजीदगी से कैसे लिखा जाता है और कैसे कोई लेख एक एहसास बन जाता है ? अमूमन किसी विषय पर लिखने के दौरान लेखक उसमें सामाजिक संसोधन करता हुआ चलता है और अंततः उसकी मूल भावना से दूर हो जाता है। ऐसे लेख प्रायः किसी कॉन्फ्रेन्स या किसी निबंध प्रतियोगिता का हिस्सा बनते हैं।   

आज जो लिख रहा हूँ वो किसी कॉन्फ्रेन्स या निबंध प्रतियोगिता का हिस्सा बनने की क़ाबलियत नहीं रखता --

सच कहूं तो अब इस शहर से मन उचट सा गया है ,,,,,,,,जितना कहना चाहता हूँ उतना ही अधूरा रह जाता है।  जितना मिलता हूँ उतना ही अकेला हो जाता हूँ। ऐसा क्यों हो रहा है कि इस शहर में रहना अक्सर याद दिलाता है कि अब चलना है वापस।  जहाँ से आया था। उसी एक्सप्रेस से। पर वो ट्रेन तो अब बंद हो चुकी होगी।  क्या मेरी वापसी के लिए वो पुराने रास्ते इंतज़ार कर रहे होंगे ? क्या जो छोड़कर आया था वो अब भी वैसा ही होगा ? जिनके लिए लौटने का मन करता है क्या वो उसी संजीदगी से मिलेंगे ? जिनके साथ खेला, वो अब न जाने कहाँ होंगे। सब के सब भटक गए होंगे। क्या यह उन सब से मिलने की बेकरारी है या फिर इस शहर में मन के उजड़ जाने के बाद अपना  ही मकान किराए का लगने लगा है ? घर वालों के ऑफिस जाने के बाद लगता है कि किसी वीराने में घिर गया हूँ। क्या कोई लौट सकेगा कभी अपनी मां के गर्भ में और वहां से शून्य आकाश में ? जो मिला वही छूटता चला गया।  

 दरअसल सहेजने आया ही नहीं था,जो सहेज सकूं। हर दिन गंवाने का अहसास गहराता है। लौट कर आता हूं तो ख्याल आता है। क्यों और कब तक इस शहर में बेदिल हो घूमता रहूंगा। इस शहर में जबड़ों को मुसकुराने की कसरत क्यों करनी पड़ती है? सारी बातें पीठ के पीछे ही क्यों होती है? सोचता हूँ किसके लिए मेरे पिताजी गांव में घर की चारदीवारी बना रहे हैं ।अपने बेटों के लिए घर को महफूज़ कर रहे हैं। मैं कल की शाम एक फाइव स्टार होटल में था। बस फिर से दिल टूट गया। इतनी चमकदार रौशनी,महफिल और मेरे पिताजी  अकेले। वो कहते हैं कि गांव से अच्छा कुछ नहीं। तुम्हारे शहर में दिल नहीं लगता। कामयाब होने का चक्र ऐसा क्यों हैं कि सारे रिश्ते उसमें फंस कर टूटते ही जाते हैं। पेशेवर होना अब एक अपराधी होना लगता है। 

ऐसा क्यों हो रहा है कि मन कुछ खराब सा हो रहा है ? सामान बांधने का दिल करता है।