Tuesday, October 18, 2011

यस बॉस

      "बॉस" ..ये नौकरी-पेशा लोगों की एक प्रजाति है ! ठीक उसी तरह जैसे 'बुलडाग' कुत्ते की, 'गुइनिया' सूअर की, 'बुर्रिटो' गधे की, 'अरेबियन' घोड़े की, 'मुआ' उल्लू की, और 'कोलोबस' बन्दर की प्रजातियाँ हैं ! विज्ञान की भाषा में हर एक प्रजाति का अपना अलग गुण होता है - जैसे 'बुलडाग' कुत्तों की पूँछ छोटी होती है, 'गुइनिया' सूअर के थूथुन बड़े होते हैं, इत्यादि, इत्यादि ! ठीक उसी तरह "बॉस" नाम की इस प्रजाति का भी अपना एक अलग गुण है और वो ये की तमाम अवगुण होते हुए भी वो अपने आपको सबसे गुणी मानता है ! वो ऐसा क्यूँ मानता है इस पर मनोविज्ञान के छात्र पी.एच.डी. कर सकते हैं ! 

      एक शोध के बाद ये पाया गया है कि "बॉस" वो होता है जो ऑफिस बिल्कुल ठीक समय पर पहुँचता है जब आप लेट पहुँचते हैं और वो खुद लेट पहुँचता है जब आप ठीक समय पर पहुँचते हैं ! कुल  मिलाकर उसको वरदान है कि वो आपमें कुछ न कुछ कमी अवश्य पा लेगा ! मगर "बॉस" बनना कोई जलेबी खाना नहीं है कि गए, माँगा , और खा लिया ! ये तो अंधे कि वो रेवड़ी है जो अँधा बांटता तो है मगर घूम-घूम कर अपनों में ही ! मतलब साफ़ है, बॉस अमूमन वही बन सकता है जो अमूमन बॉस के घर पैदा होता है ! कभी सुना है ?' कलेक्टर का लड़का चपरासी बना', 'डी.जी.पी. का लड़का हवलदार बना', 'डॉक्टर का लड़का कम्पाउंडर बना', 'इंजीनियर  का लड़का एक सड़क-छाप मेकैनिक बना' 'क्रिकेटर का लड़का तबलची बना', 'सुपरस्टार का लड़का स्टार नहीं बना', 'मंत्री का लड़का आम-आदमी बना', या फिर, 'बिजनेसमैन का लड़का भिखारी बना' ? 

      बॉस की पैदाइश अमूमन किसी मेट्रोपोलिटन सिटी में होती है, जैसे, मुंबई, डेल्ही, बंगलुरु, चेन्नई, इत्यादि-इत्यादि, और वो भी अमूमन किसी एयर-कंडीशन फाइव-स्टार हस्पताल में, जैसे, अपोलो, फोर्टिस, लीलावती, इत्यादि-इत्यादि ! जो छोटे शहर और सरकारी हस्पताल के सरकारी माहौल में पैदा होते हैं, वे सामान्यतः बॉस बनने की काबिलियत खो बैठते हैं ! बॉस का बचपन महंगे खिलौनों में बीतता है, जैसे बार्बी डॉल, विडियो-गेम, प्ले-स्टेशन, इत्यादि-इत्यादि ! जब आम बच्चा (जो आगे चलकर बॉस नहीं बनेगा) नंगे पैर मिट्टी में लोट रहा होता है, तब भविष्य का ये बॉस किसी "प्ले-वे" में गुब्बारे से खेल रहा होता है ! जब आम बच्चा देहात के प्राइमरी में दाखिल होता है, तब भविष्य का ये बॉस कॉन्वेंट में इंट्री मारता है ! जब आम बच्चा खेतों में भैंस चराता है, तब भविष्य का बॉस पल्सर के कान उमेठता है ! 

     खैर, भविष्य का बॉस अब वाकई में बॉस बन चुका है ! अफसर (या बॉस एक ही बात है) बनने के बाद उसमे पहली खूबी तो यह आई कि उसे हिन्दोस्तान अब कुछ ख़ास रास नहीं आने लगा, एक विदेशी दौरा ज़रूरी हो गया ! दूसरी बात यह हुई कि उसे ब्रिज, बिलियर्ड, पूल, गोल्फ, टेबलटेनिस से लेकर हालीवुड कि फिल्मे, ना समझ आने वाली पेंटिंग्स और दूसरी ललित-कलाएं अपने-आप आ गईं, जैसे कि हर अफसर को आ जाती हैं ! तीसरी और सबसे बड़ी खूबी उसमें यह आई कि उसमें अचानक भैंसों, सूअरों, और सांडों की तरह भारी मात्रा में चर्बी का स्टॉक ज़मा हो गया ! 

     यह बॉस एक सरकारी अफसर है, वह खुद घूस के दलदल में लोटता है, मगर नई-भर्तियों को कर्रप्सन से दूर रहने की सलाह गला फाड़ कर देता है ! जब कभी उसे टाइम पास करना होता है वो अपने से नीचे काम करने वालों के यहाँ दबिश देता रहता है (ताकि उन्हें एहसास रहे की वो नीचे हैं और बॉस ऊपर) ! एक दिन वो नगर-निगम के दफ्तर का आकस्मिक दौरा करने निकल पड़ता है साथ में सरकारी फोटोग्राफर और गैर सरकारी होने के बावजूद दो ज़िम्मेदार पत्रकार ! 

      दफ्तर पहुँचते ही उन्हें एक इंजीनियर, दो उप और तीन सहायक नगर अधिकारी गैरहाजिर मिलते हैं ! वे उनकी मुअत्तली का हुक्म देते हैं ! एक छोटे मुलाजिम को शीतल पेय लाने का हुक्म देकर वो धस से सोफे पर पसर जाते हैं ! तभी हंफनाता हुआ सूबे का छोटा अधिकारी बॉस के सामने पेश होता है ! कोक की एक सिप लेकर बॉस उस पर गुर्राते हैं - "यहाँ कोई डिसिप्लिन नहीं है ! आपका काम बिल्कुल रद्दी है ! पूरा शहर सड़ांध और गन्दगी से बजबजा रहा है, घूरा बन गया है !" छोटा अफसर और छोटा मुलाजिम दोनों अपने दोनों कानों से बड़े अफसर की दुत्कार एक असांयट की तरह सुनते हैं !  

                                                                                                                    
     गैरहाजिर मुलाज़िमों की तफ्तीस के दौरान बॉस को पता चलता है कि एक मुलाजिम किसी दूसरे बॉस कि बीवी को ड्राइविंग सिखाने गया है ! बॉस फ़ौरन उसको दफ्तर में बुलवाते है और उससे ड्राइविंग लाइसेंस की मांग करते हैं ! मगर मुलाजिम के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं मिलता है ! बॉस अब अफसराना अंदाज़ में पूंछता है, "यानी कि खुद गाडी चलाने कि ज़रा भी तमीज नहीं और दूसरों को आप गाडी चलाना सिखा रहे हैं ?" 

      "बेशक ज़नाब, आपने दुरुस्त फ़रमाया, " मुलाजिम थोड़ी बदतमीजी से बोला, पर इससे आपको हैरत क्यूँ हो रही है ? ऐसा तो आजकल सारे देश में हो रहा है ! खुद अपने को देखिए, आप अंग्रेजी में एम.ए. हैं पर मोटरों के महकमे में अफसर बन गए हैं ! मैं एक करोडपति को जानता हूँ ! वह कुछ गुप्त रोगों से पीड़ित था ! चिकित्साशास्त्र से उसका कुल मिलाकर यही रिश्ता था ! वह अब एक प्राइवेट मेडिकल कालेज का एम.डी. है ! मैं एक ऐसे शख्स को भी जानता हूँ जो एक चुंगी-चौकी पर पर्ची काटता था ! यानी उसके सारे जीवन का कुल यही अनुभव था कि किस तरह सड़क के आर-पार शहतीर खींच कर सामने आती गाडी को रोक लिया जाए ! आज वह एक राज्य में गृहमंत्री है और पुलिस कप्तानों को कानून और व्यवस्था के दांव-पेंच सिखाता है ! सिर्फ भैंस चराकर आजकल मुख्यमंत्री बन जाते हैं, और मुँह खोलकर 'भक' से जैसे ही कोई आवाज़ निकालते हैं वही उनकी नीति बन जाता है ! उन्हें भरोसा है और इस बात कि अकड़ भी, कि जो भैंस चरा सकता है वह राज्य के आठ-दस करोड़ इंसानों को भी चरा सकता है क्योंकि उधर भैंसें हैं और इधर भेंडें हैं ! और आप उन्हें भी जानते हैं जिन्होंने विधाइकी तो दूर, कभी ग्राम-सभा का इलेक्शन तक नहीं लड़ा और वे अचानक देश के प्रधानमंत्री बन बैठे ! आप भला मुझी से गाडी चलाने का लाइसेंस क्यों मांग रहे हैं ? यहाँ से दिल्ली तक जाकर कहीं भी चेक कर लीजिए , प्रजातंत्र कि गाडी चलाने वाले और उस्ताद बनकर उन्हें सिखानेवाले आपको जो भी मिलेंगे, मुझसे कतई बेहतर नहीं होंगे !

     ज़िम्मेदार पत्रकार इसे नोट करने लगते हैं, तभी दरवाज़े से कॉफी और काजू का प्रवेश होता है !


      




Thursday, October 13, 2011

छात्र बनाम अनुशासनहीनता.....

      छोटी कछाओं में मुझे सिखाया गया था की प्रत्येक निबंध की शुरुआत परिभाषा से करनी चाहिए; जैसे गाय का निबंध लिखना हो तो शुरू इस सवाल से करना चाहिए कि गाय किस चिड़िया का नाम है ? उसी तरह इस छोटे से निबंध की शुरुआत इस सवाल से हो सकती है कि छात्रों कि अनुशासनहीनता है क्या चीज़ ?

      इतना तय है कि क्लास में न आना, फीस न देना, अध्यापकों से अबे-तबे करना, किताबों को कभी न देखना, सहपाठिनी छात्राओं को लगातार देखते रहना, ऊलज़लूल कपडे पहनना, उससे भी ज्यादा उलज़लूल बोली बोलना - यह सब अनुशासनहीनता नहीं है; यह सब तो बिंदास मोडर्न ट्रेंड है; कम-से-कम इन्हें लेकर छात्रों को अनुशासनहीन नहीं कहा जा सकता ! वैसे ही, दारू पीकर झगडा करना, रेल में बिना टिकट चलना, रेड लाइट पे भी न रुकना, जिस फिल्म को देखकर आना खुद को उसी फिल्म का हीरो समझना, राह चलती बालाओं को अपनी हिरोइन समझना - यह सब भी अनुशासनहीनता में नहीं आता ! दरअसल, अगर कल के गुजरात और आज के बिहार कि हालत पर गौर करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि छात्रों की अनुशासनहीनता सिर्फ सड़क पर जुलूस निकालने, हड़ताल करने, बसें जलाने, गोली खाने, जेल जाने, यानी सौ बात की एक बात - पालिटिक्स भिड़ाने में है !

      सवाल यह है : इस समय यानी जब अन्ना हजारे सभी का सर्वोदय कर रहे हैं, छात्रों कि इस अनुशासनहीनता को रोका कैसे जाए ?

      अनुशासनहीनता का उपर्युक्त अर्थ जान लेने के बाद उसका हल आसानी से निकाला जा सकता है ! सबसे सीधा रास्ता तो ये है कि पालिटिक्स ही ख़त्म कर दी जाए - न रहे बांस, न बजे बांसुरी ! पर पालिटिक्स ख़त्म हो जाने से ग्राम स्तर से अखिल भारतीय स्तर तक के लाखों राजनीतिक नेता बेकार हो जाएंगे और इतना बड़ा 'ले-आफ' होने से बेरोज़गारी कि समस्या और भी विकराल हो जाएगी ! इसलिए पालिटिक्स अच्छी हो या बुरी, बेरोज़गारी को दूर रखने के लिए पालिटिक्स को कायम रखना ही पड़ेगा !

      दूसरा उपाय यह है कि स्कूलों, कालेजों, और विश्वविद्यालयों को ख़त्म कर दिया जाए ! न रहे छात्र और न रहे उनकी अनुशासनहीनता ! पर इससे भी यह नुकसान होगा कि लाखों अध्यापक बेरोजगार हो जाएंगे ! आज की शिछा-संस्थाएं छात्रों के लिए भले ही बेकार हों, अध्यापकों की रोज़ी के लिए उनका कायम रहना लाज़मी है !

      तीसरा उपाय यह है कि कालेज ख़त्म न हो सकें तो छात्रों कि परीछाएं ख़त्म कर दी जायें, क्योंकि 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारों कि शुरुआत अब प्रायः परीछा-कछ से ही होती है ! पर परचा बनाने वालों, परीछा के निरीछकों, अधीछकों, पर्यवेछकों, और कॉपी जांचने वालों, नंबर जोड़ने वालों, जोड़ कि चेकिंग करने वालों, यानी परीछा से पैसा पैदा करने वालों कि संख्या भी लाखों में है और अगर परीछाएं ख़त्म हो गईं तो उनकी जीविका का एक साधन भी ख़त्म हो जाएगा; यानी आज कि परीछाएं छात्रों के लिए भले ही बेकार हों, मास्टरों के लिए बड़े ही काम क़ी हैं !

      तब सवाल उठता है कि पालिटिक्स को मिटाए बिना, शिछा-संस्थाओं को मिटाए बिना, परीछाओं को मिटाए बिना छात्रों की अनुशासनहीनता कैसे मिटाई जा सकती है ? 

     फ़ॉर्मूले की तरह, निम्नलिखित नुस्खों की आजमाइश की जानी चाहिए :

     (१). राजनीति के दलदल में वह खुद बेशक लोट रहा हो, पर प्रत्येक राजनीतिक नेता बार-बार यही चीखता रहे कि छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिए !

     (२) सामाजिक जीवन कि गुत्थियों और देश कि समकालीन समस्याओं के साहित्य पर रोक लगा दी जानी चाहिए ! उसकी जगह 'यूथ टाइम्स', 'माधुरी', 'फेमिना' 'फिल्मफेअर', 'कांफिडेंशिअल एडवाईजर' जैसी पत्र-पत्रिकाओं को रियायती दरों पर छात्रों में बेंचा जाए और स्कूल-कालेजों में मुफ्त बंटवाया जाए !

     (३) 'आरक्षण', 'स्वदेश', 'गाँधी' ...जैसी फिल्मों को प्रतिबंधित कर के 'गर्म हवा' 'डेल्ही-बेल्ली', ...जैसी फिल्मों को कलात्मक घोषित किया जाए, उन्हें मनोरंजन कर से मुक्त किया जाए और प्रोडूसरों तथा डायरेक्टरों में गन्दी फिल्मे बनाने की वार्षिक प्रतियोगिता चलाई जाए !

     (४) किताबें बहुत महँगी हों और शराब बहुत सस्ती हो ! नशीली दवाओं का खुले-आम गुप्त प्रचार किया जाए!

     (५) विश्वविद्यालय में प्रजातंत्र के सिधांत, घाटे की अर्थव्यवस्था, मुद्रास्फीति आदि विषयों को छोड़ कर बराबर ऐसे सेमिनार होते रहे जिनका विषय हो 'सिनेमा में चुम्बन दिखाया जाए या नहीं' अथवा 'पत्नी के साथ एक प्रेयसी रखना तंदुरुस्ती के लिए लाभकर है या हानिकारक ?

      (६) फिल्मों और विज्ञापनों के मार्फ़त बड़े-बड़े बालों, उलटे-सीधे फैशनों, बेहूदा तौर-तरीकों को प्रोत्साहित किया जाए !

      (७) होटलों, मिठाई की दुकानों, कहवाघरों और शराबखानों पर उन्हें निरंतर उधार लेने की सुविधा दी जाती रहे !

      (८) बुधजीवियों, सीनिअर प्रोफेसरों, वैज्ञानिकों के अलावा सेक्स-बम राखी सावंत, करीना कपूर, कटरीना कैफ या रणबीर कपूर, इमरान खान और शाहरुख़ खान जैसे अभिनेताओं को विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर बनाने का मौका दिया जाए !

     (९) संछेप में, छात्र अपनी आधे से ज्यादा उम्र सिर्फ ऊलज़लूल ढंग से बाल बढ़ाने, ऊलज़लूल फिल्में देखने, बेहूदा पत्रिकाएँ पढ़ने, एक-दूसरे पर खीझने, चीखने-चिल्लाने, गुर्राने, सस्ता नशा करने और हर जगह से अपने को बर्बाद करने में बिताते रहें !

     अब आप यह देखिए कि ये सुझाव तो मैं आज दे रहा हूँ पर अपने देश में ऐसे सूझ-बूझ वाले कई लोग हैं जो इनमे से अपने आप कई सुझावों पर बहुत पहले से ही अमल करते आ रहे हैं !