Saturday, January 5, 2013

कुछ आवारा ख्याल .....

 अक्सर ये सोचता हूँ कि लोग लिखते क्यूँ हैं,  यूँ ही बेवजह या फिर किसी वजह से, कुछ लोग लिखते हैं और बहुत लोग उसे पढ़ते हैं या यूँ कहें बहुत लोग लिखते हैं और कुछ ही उसे पढ़ते हैं, कभी-कभी मुझे लगता है लिखना एक बीमारी है, एक फोड़े की तरह। या फिर एक घाव जो मवाद से भरा हुआ है । जिसका शरीर में  रहना उतना ही खतरनाक है, जितना दर्द उसको फोड़ कर बहा देने में हो सकता है । कभी अगर डायरी में लिखने का मन करता है तो घंटों डायरी के उस खाली पन्ने को निहारता रहता हूँ । फिर मन मार कर कुछ लिखने बैठता हूँ ।

यकीन मानिये तो लिखने की ऐसी कोई महत्वाकांछा नहीं, बस उस पन्ने की पैरलल खिंची लाइनों के बीच अपने मुड़े-तुड़े आवारा ख्यालों का ब्रिज बनाते चलता हूँ । खुद से लड़ता-झगड़ता हुआ हर एक शब्द उन पन्नों पर उतरता जाता है ।  जब दूसरे उन पन्नों को पढ़ते हैं तो उनकी नज़र में, लिखना कुछ शब्दो की खिचड़ी जैसा मालूम होता है, असल में वो एक एहसास की तरह होते हैं । दरअसल, कभी दर्द के कुछ शब्द इन कागजों में उतर जाते हैं । कागज़ बेजान होते हैं लेकिन वो दर्द बेजान नहीं होता ।

उस कागज़ पर मेरी बेबसी छप आई है, एक कायरता, खुद से भागते रहने की पूरी कहानी । जब पाता हूँ अपने आप को उन इंसानों के बीच जो मर्दानगी का मैडल लगाए घूमते  हैं भेड़ियों की तरह, खुद को आग में झोंकने का दिल करता है । ऐसे में कभी गुस्सा भी बहुत आता है । दिल करता है सिगरेट एक बार में ही पी जाऊं, चेन स्मोकर टाईप ।

हर कश के धुंए के साथ अपने गुस्से को भाप बना कर उड़ा दूं । बाहर से ना सही तो कम-से-कम अन्दर से धुआं-धुआं कर दूं अपने शरीर को । कागज़ के पन्ने पर फैले अपने गुस्से के ढेर को चिंदी चिंदी कर हवा में उड़ा  देता हूँ । हवा में उड़ते वो टुकड़े भी जैसे मेरे चेहरे पर ही थू -थू  कर रहे हैं । मैं रुमाल निकाल कर अपना चेहरा पोंछ  लेना  चाहता हूँ, लेकिन वो तो चेहरे से होते हुए मेरे वजूद पर उतर गया है ।

पलट कर घड़ी को  देखता हूँ, रात काफी हो चुकी है । मैं फिर से बीमार-बीमार सा फील कर रहा हूँ । मन के भीतर सौ किलोमीटर की रफ़्तार से चलती हुई अंधड़ में तना - दर - तना उखड़ता जाता हूँ । कमबख्त नींद भी नहीं आती, करवटें पीठ में चुभने लगती हैं । बेबसी से कांपते हुई अपनी आवाज़ को द्रढ़ता की शाल में लपेटकर खूब जोर से चिल्लाने का मन करता है ।

खिड़की से बाहर शहर चमक रहा है, लेकिन अन्दर निपट अँधेरा है । आस - पास माचिस भी नहीं जो आग लगा सकूँ इन कागज़ के पन्नों को ।

7 comments:

  1. khidki se hi bahar chamkte shahar ko dekhna kabhi balcni me jakr neeche dekhne ki koshis mt karna aur agar galti se ye baten ho b jayen to .......shall me dabi apni chillane wali aarju ko bilkul b bahar mat nikalne dena....!

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  2. aap bahut achha likhte hain .....kaafi dinon ke baad aaya hai aapka koi lekh .....will wait for ur next.

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  3. ur work reflects a mature style instead of an amateur one ....good work.

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  4. what a piece of writing-style ! .....always like this shade of writing and u did that up-to the level.

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  5. Thanks all of u for devoting ur precious time in reading this and making ur valuable comments.

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  6. panne tab tak bejan hote hain jab tak uspar lekhni ka sparsh nahi hota. ekbar syahi jab panne pr padti hai to uski bhavna ek sajiv chitran kr jati hai. jaise ki abhi apne kaleja nikal liya.Vivek Jai Hind

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  7. panne tab tak bejan hote hain jab tak uspar lekhni ka sparsh nahi hota. ekbar syahi jab panne pr padti hai to uski bhavna ek sajiv chitran kr jati hai. jaise ki abhi apne kaleja nikal liya.Vivek Jai Hind

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