गोमती के किनारे बना हुआ एक बेशकीमती क्रीड़ास्थल (stadium ) है, जो खिलाडियों की अपेछा बाढ़ के पानी को ज्यादा खींचता है ! वहीँ "बन्दर पुल" है ! जिस पर चलने वाले बंदर कम हैं और विश्वविद्यालय के छात्र ज्यादा ! छोटी-छोटी सड़कों का जाल ! लम्बे-चौड़े पार्क, जिनकी रौनक बढ़ाने के पीछे नगरमहापालिका ने अपने- आपको दिवालिया बना लिया और बता दिया की अवध की रियासतें कैसे चलाई जाती थीं ! वहीँ एक छोटा सा तिकोना पार्क है, जिसमें एक रोमन शिकारी की प्रतिमा लगी है वह लक्ष्मणजी हैं वही लक्ष्मण जी जो शेषनाग के अवतार हैं, जो रामलीला में राम और सीता के पास खड़े दीखते हैं ! हमें बताया जाता है की लखनऊ शहर उन्हीने बसाया था !
लखनऊ में फ़िलहाल इसी को इतिहास मानकर कुरेदा जा रहा है की लखनऊ शहर लक्ष्मण जी ने बसाया ! जिस तरह पहले यहाँ के पार्कों में महारानी विक्टोरिया या बटलर की प्रतिमाएं थीं, अब काशीराम और बनारसीदास की प्रतिमाएं हैं, कल मायावती की होंगी, उसी तरह यह एक प्रतिमा लक्ष्मण जी की है - सिर्फ ऐतिहासिक ज़रुरत !
चारबाग स्टेशन से बहार निकलते ही बाहरी आदमी को दो रास्ते खुले मिलते हैं - वैसे रास्ते तो कई हैं, पर घूम-फिरकर रह दो ही जाते हैं - नवाबी और अंग्रेजी ! इन रास्तो पर चलने के लिए सवारियां भी दो तरह की हैं : इक्के और ताँगे, साइकिल रिक्शे और बसें ! टैक्सी लगभग वही और उतनी ही दिखेंगी, जो १९४० में थीं, स्कूटर- रिक्शे प्रतीक के रूप में दिख जायेंगे ! पर असल सवारी है ताँगा, जिसमें उत्तर की ओर जाते हुए आप मुह दक्खिन की ओर रखते हैं, जो की कुछ-कुछ लखनऊ के जीवन-दर्शन से मेल खता है !
और लखनऊ की बस- सर्विस भी बहुत दिलचस्प है ! मिल जाए तो बस पर चढ़ना चाहिए ! किसी भी बस-स्टैंड पर खड़े होकर लगेगा, बसें बहुत हैं, सैकड़ों की तादाद में आ-जा रही हैं, पर जो घंटों से नहीं आई वह सिर्फ हमारे रूट की बस है ! स्टेशन के बहार लखनऊ की हवा है : लैला की उँगलियों और मजनू की पसलियों-जैसी ककड़ीयां, रेवड़ी और खर्बुज्जे इसी हवा की उपज हैं ! "अमाँ" और "यार" हर मौसम में पाए जाते हैं ...इसी हवा की बदौलत ! "शरारत करोगे तो देखो, बताये देते हैं, हम गाली दे देंगे !"
इस हवा में सिर्फ बात की जा सकती है, बिना बात की ! चौराहे पर सिपाही भी गलत जाती हुई मोटर का चुपचाप चालान नहीं करता, पहले बहस करता है, "एएए ! भाई साहब ए, किधर ?" आपको छूट है की आप साबित करें, आप ठीक जा रहे थे ! आपका चालान होगा, पर पांच मिनट की बहस के बाद ! वही बहस नीबू खरीदने में और एक पुरानी टैक्सी का किराया तय करने में !
स्टेशन से बहार की ओर चलते ही आप उधर पहुँचते हैं, जहाँ दो लखनऊ हैं ! पेश है पहला लखनऊ - मटमैले फटे बुर्के ! चंद रोगों का शर्तिया इलाज ! सस्ती चाट और कूड़ा ! चेचक और कालरा ! खुलेआम बाल्टियों में धोया जाता हुआ मैला ! संतरे के छिलके, गोभी के सड़े पत्ते और प्याज के टुकड़े ! गिरती शहतीरें ! महिला-उद्धारक समितियां ! खुले हुए संडास ! आवारा छोकरे ! चोरी के माल और इस्तेमाल किये हुए रईसी सामान से भरा-पूरा इतवार का बाज़ार ! गरीबी ! अशरफाबाद और सआदतगंज की सूदखोरी ! पतंग, बटेर, तीतर ! बाभन, गाय, हाथी, भंगी, कुत्ता, बनिया - सबकी अलग-अलग, दूर से ही पहचान करा देने वाली फिजा !
दुसरे लखनऊ में वो सब कुछ है, जो हिंदुस्तान के सभी बड़े शहरों में होता है, जिसका अपना कोई व्यक्तित्वा नहीं ! अफसरों के बंगले और क्लब (जहाँ गोरों के चले जाने पर भी गोराशाही कायम है ), टुच्चे दफ्तरों की शानदार इमारतें, आकाशवाणी का स्टेशन, विधानसभा का रोबदार विलायती गुम्बज़ (जिसके सामने रोज़ नए आन्दोलन बनते हैं, बिगड़ते हैं, उखड़ते हैं), हज़रतगंज का बाज़ार (जहाँ, देहाती, राजनितिक कार्यकर्त्ता, और शहरी नौजवान बार में एकसाथ विलायती शराब पीते हैं), अजायबघर, मुहम्मद बाग़ क्लब , फौजी-छावनी के साफ़-सुथरे माकन (जो 'जय जवान जय किसान' के बावजूद जवानों से बहुत ऊपर और किसानों से बहुत दूर हैं), पी.वी.आर., वेव माल, सहारागंज, गोमती-नगर, हाथी-पार्क, सड़क के बीचो-बीच फवार्रे (जहाँ २४*७ पानी किसी युवती के मुह से उगलता रहता है और उन इलाकों को मुह चिढाता रहता है जहाँ पानी की किल्लत है) ! एक लखनऊ यह भी !
इन दो लखनऊओं के दरम्यान बना हुआ, लगभग बीस लाख रुपये ( जो की अब करोड़ों में है) लागत का रवीन्द्रालय है, स्टेशन के बिलकुल पास ! आते-जाते कोई उसे अनदेखा नहीं कर सकता, कोई यह नहीं कह सकता कि लखनऊवालों को रविंद्रनाथ ठाकुर का नाम नहीं मालूम ! यहाँ कभी-कभी शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम भी होते हैं ! अफसरों और व्यापारियों के सजे-बजे जोड़े इन्हें सुनने को बड़ी ललक के साथ रवीन्द्रालय पर टूटते हैं : वही ललक, जो वे चाट की दूकान की ओर दिखाते हैं !
यह सांस्कृतिक जीवन है, जिसके दुसरे प्रतीक यहाँ के मुहल्लों के नाम हैं ! नवाबी धज वाले मोहल्ले, लैयावाली गली, बताशेवाली गली, गन्नेवाली गली ! साहित्यिकों के आंसू पोंछने का टुकड़ा : महाकवि निरालानगर ! अहिंसावाद को बेझिझक उकसाने वाले मुहल्ले, अशोक नगर, अशोक मार्ग, गोखले मार्ग, गौतम बुद्ध मार्ग !
पर यह सांस्कृतिक सैलानियों को अपनी ओर इस इतिहास -भूगोल के कारण नहीं खींचता ! उसके कारण दुसरे ही हैं ! एक ओर बड़ा इमामबाडा, छोटा इमामबाडा, रेजीडेंसी आदि का 'पासाणी' वातावरण है, दूसरी ओर लखनऊ के लम्बे-चौड़े-खूब लम्बे-चौड़े पार्क और हाल में शहर को एक तथाकथित बहन द्वारा 'फेस लिफ्ट' देने के स्थूल प्रयास ! पर लखनऊ का आकर्षण आज की इन चीज़ों में उतना नहीं, जितना की यहाँ के लोगों में है !
आओ लखनऊ चलें